वेदना भारत माँ की


रात सपनों में मिली वो, द्रवित होकर रो रही थी।

देख ले आँसू न कोई, इसलिए मुंह धो रही थी।।

थी छिपाती दर्द अपने, पर न छिपती अश्रुधारा।

लग रहा कि उसे अपनों, ने किया था बेसहारा।।

                             देखकर उसको लगा कि, दर्द कुछ उसके बंटा लूं।

                             लग रहा अपना है कोई, हाल का उसके पता लूं।।

                             पास जब उसके गया तो, वो जरा सी मुस्कुराई ।

                             उसने मेरा कुशल पूछा, पर जुबां थी लड़खड़ाई।।

कहा माता मैं सुखी हूँ,पर व्यथा अपनी सुनाओ ।

तेज मुखमंडल सुशोभित, माँ पता अपना बताओ।।

व्यंगमय थी हँसी उसकी, जब कहा क्या नहीं जाना।

मैं वहीं भारत हूँ जिसको, तुमने अपना देश माना ।।

                               मैं नहीं निर्जीव टुकड़ा,एक जीवित आत्मा हूँ।

                              पर कभी समझा न तूने ,बस कहा परमात्मा हूँ।।

                        जब वचन उसके सुना तो, रूह कांपती हृदय डोला।

                     कुछ द्रवित कुछ क्रुद्ध होकर, रोषमय वचनों में बोला।।

  माँ कटे बंधन तुम्हारा, वीर लाडले फाँसी झूले।

तेरी गोद लुभाती सबको, इश्वर तेरी गोद में खेले।।

किस दुःख से तु दुःखी है मैया,उसका पता बता दे।

जग में किसका साहस है, जो तेरा हृदय दुःखा दे।।

                          तेरे दुःख का क्या कारण है, जड़ से उसे मिटा दूं।

                          तूँ एक बार इशारा कर दे, जग को आग लगा दूँ।।

                         आग लगा कर करता पायेगा, बोली भारत माता।

                          उनके ही शव घर लायेगा, जो  हैं  तेरे  भ्राता ।।

राम कृष्ण गौतम ने आकर, मेरा मान बढ़ाया।

आताताई शीश झुका कर,ही मेरे घर आया।।

पर ये वैभव बना रहे ,संयम तुमको करना था।

उनको लगे मारने प्यारे, जिनपर तुमको मरना था।।

                                जातिवाद और क्षेत्रवाद का तुमने बैर बढ़ाया।

                                आताताई अवसर पाया, मुझे जीतने आया।।

                          जड़ता की निद्रा में सोये, उस पर जाग सके ना।

                       वृथा शान शौकत को अपनी,उसपल त्याग सके ना।।

गैरों के पैरों का जूता,रास तुम्हें आया था।

अपना भाई गले लगाना, तुम्हें नहीं भाया था।।

कसती रहीं बेड़ियां मेरी, तुमको बस सोना था।

चाटुकारिता भाई तुमको, मुझको बस रोना था।।

                              फिर सौभाग्य हमारे जागे, हरि ने दया दिखाई।

                              अंधकार भारत का हरने, पुनः ज्योतियां आती।।

                            एक साथ सब खड़े हुए, आजादी के आश जगे।

                              खुली हवा में खेलेंगे, मेरे मन में विश्वास जगे।। निज दीप बनों इस आशा में, कुछ महारश्मियां चलीं गईं।

बची रश्मियां पड़ी अकेली, अपनों से ही छली गई।।

मेरी जंजीरें काट सको, तलवारें बांट दिया था।

पर पड़े विदेशी चक्र में तुम ने, बाजू काट दिया था।।

                                 मैंने सोचा आजादी में,स्वार्णिम युग आयेगा।

                               कोई सुभाष कौटिल्य कोई, कोई पटेल छायेगा।।

                       सैकड़ों लाल सुन चुके दर्द, और सबने बांटा है इसको।

                      है और सुनाना ना जाने, कितने को किसको किसको।।

दर्द बढ़ा जाता दिन दिन, कोई उपाय नहीं सूझे। 

भाई-भाई लड़ता है क्यों, माता का दर्द नहीं बूझे।।

वो प्रेम न जाने कहां गया,क्यों लड़ते हैं मेरे बेटे।

 वे मेरे ऊपर हँसते हैं, जो हार मान कर लौटे थे।।

                        वो आज भी ताने कसते हैं, कहते हैं मुझको दीन हीन।

                     वो कहते हैं मैं भैंस के आगे बजा रही अब तलक बीन।।

                        पर उनकी चिंता मुझे नहीं,ना मैं गैरों की मारी हूँ।

                        पर उत्तर भी किस मुंह से दूँ, मैं तो अपनों से हारी हूँ।।

  माँ के संग मैं भी रोया था,आँशू से भीगी थी काया।

 मैं समझ गया है ध्वजा कहां और सिंह कहां है भरमाया।।

  फिर साहस भरकर मैं बोला, कुछ पल माँ धीरज और धरो।

  माँ मैं संदेश सुनाया हूँ, तुम चल करके श्रृंगार करो।।

                       भारत माँ की बातें समझों,इस कारण कथा सुना डाली।

                       माँ अब भी रस्ता देखे रही,कब घर आयेगी खुशहाली।।

                          उम्मीद लगाकर बैठी वो , कल मेरे बेटे आयेंगे।

                           जो घात लगाकर बैठे हैं,उनको वो आँख दिखायेंगे।।

पर अगर अकेले जाओगे,माँ कभी नहीं अपनायेगी।

जब मिलें परस्पर दिल से दिल, माँ खुशियां तभी मनायेगी।।

अब कितना धैर्य धरे बोलों,सोचो क्या माँ का त्याग रहा।

आओ आपस में मिल जाँये, बस इतनी भिक्षा माँग रहा।।


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