स्वामी विवेकानन्द

जड़ अविवेक की काट राम ने, बीज विवेक का बोया था

जड़ता में घनघोर निशा की, आर्यवर्त यह सोया था

दुनिया करती गर्व नरेंदर,आग लगाता पानी में

देख के बंधन निज माँ के, वह अंतर्मन से रोया था ।।१।।


उठो जगो कर्त्तव्य में रत हो, रुको नहीं बिन लक्ष्य लिए 

चलो गिरो उठकर फिर दौड़ो नयनों में आदर्श लिए

संघर्षों के बिना है कुछ भी मानवता को मिला नहीं

मानव हो जानें से क्या गर ,पशुवत ही उपभोग किये ।।२।।


सभी मरें या सभी बचेंगे , दो विकल्प बस दुनिया में

आदर्शों का किला ढ़हा तो , सभी दबेंगे दुनिया में

व्यक्ति व्यक्ति से अलग हुआ तो, फिर होगा व्यक्तित्व नहीं

खुद से घर मिलना चाहो तो, मिलों परस्पर दुनिया में ।।३।।



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