कृष्ण और कामना

कृष्ण को चाह है यूं तो बृजधाम की।
द्वारिका सत्य है किंतु घनश्याम की।।

धार यमुना की मन में ही बहती रहे
गोते सागर की लहरों में लेना ही है
जिंदगी चलती है अपने ही ढंग से
वो तो होता ही है जिसको होना ही है
पीर पर भारी मुस्कान है श्याम की।
कृष्ण को चाह है यूं तो बृजधाम की।।

यूं तो दुनिया ही पलकें बिछाए मिली
एक राधा ही मन को लुभाती उन्हें
उनका जीवन अधूरी कहानी रहा
दुनिया अवतार पूरा बताती उन्हें
कृष्ण गाथा समर्पण की बलिदान की।
कृष्ण को चाह है यूं तो बृजधाम की।।

थाम  वंशी  बनें  प्रेम  के  देवता
शांति का ले निवेदन तो जाना ही है
नीति मजबूरियों की गुलामी नहीं
शांति को युद्ध भारी रचाना ही है
कृष्ण  का अर्थ  है  कर्म  निष्काम  ही ।
कृष्ण को चाह है यूं तो बृजधाम की।।
 
जो समय ने कहा पूरे मन से किया
ये भी मालूम है सारा खो जायेगा
द्वारिका स्वर्णनगरी प्रभु ने किया
है पता कि ये सागर का हो जायेगा
कृष्ण ही सार है श्रृष्टि अविराम की|
कृष्ण को चाह है यूं तो बृजधाम की।।

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