नेतृत्व सूत्र
स्वर्णमयी द्वारिका को
होना है वृंदावन
जिसका गुणगान
स्वयं द्वारिकाधीश करते हैं
वृंदावन को
होना है द्वारिकापुरी
जहाँ
स्वयं उसके कान्हा रहते हैं
और कृष्ण को...
नहीं नहीं
उन्हें कुछ नहीं होना है
बने रहना है
अडिग पाषाण
कृष्ण हों राधा हों सीता हों या राम हों
क्या फर्क पड़ता है
अगर करना है नेतृत्व
तो होना होगा शिखर
और एकांत में
नयनों से बहानी होगी गंगा यमुना
जिससे समाज हो सके तृप्त
और हो सके सभ्यता का निर्माण
दुनिया बचाने हेतु
पीना होगा हलाहल
फर्क नहीं पड़ता
कि उसे
कंठ में धारण कर
बनते हो नीलकंठ
अथवा
पीड़ित होगा
हृदय में बैठा तुम्हारा प्रिय
और
अगर उसे
पचाने के प्रयास में मर भी गये
तो क्या है
विष तो पीना ही है
दुनिया को बचाने हेतु
अन्यथा....
क्या अर्थ है
तुम्हारे अवतारों का
तुम्हारे जन्म का
तुम्हारे होने का
तुम भी
वही हो जाओगे
जो कोसता रहता है
खुद को
कुछ और होने को
नहीं जी पाओगे
अपना मिला हुआ जीवन
न ही कर सकोगे
नेतृत्व
सभ्यता का
समाज का
परिवार का
न ही स्वयं का
यह रचना नेतृत्व के साथ त्याग की भव्यता का अनुभव देती है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया🙏
हटाएंउत्कृष्ट रचना��
जवाब देंहटाएंधन्यवाद🙏
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